हमारे समाज में बहुत से लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए अलग-अलग काम करते हैं। कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, तो कोई नौकरी करता है। लेकिन कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जिनका गुजारा ब्याज (Interest) पर पैसे देने से होता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि “क्या ब्याज पर पैसे देना पाप है?” और क्या इससे अर्जित धन शुद्ध माना जाता है? इस विषय पर संत प्रेमानंद जी महाराज ने बहुत सहज और स्पष्ट दृष्टिकोण रखा है, जिसे समझना हर इंसान के लिए ज़रूरी है।
ब्याज का मूल अर्थ और उसका महत्व
ब्याज का मतलब है किसी को धन देना और बदले में उस धन का कुछ अतिरिक्त हिस्सा लेना। सामान्य रूप से देखें तो यह बैंक से लोन लेने जैसा ही है। बैंक भी हमसे ब्याज लेता है और हम उसे गलत नहीं मानते। इसी तरह गांव-शहर में जो लोग अपनी पूंजी दूसरों को उधार देते हैं और बदले में ब्याज लेते हैं, उनका भी यही काम है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि समाज में ऐसे कई लोग हैं जिन्हें अचानक पैसों की जरूरत पड़ जाती है। बैंक से तुरंत लोन मिलना संभव नहीं होता। ऐसे समय में वे छोटे स्तर पर ब्याज पर पैसे लेने वालों के पास ही जाते हैं। अगर कोई उन्हें पैसा न दे तो शायद वे बड़ी परेशानी में पड़ जाएं।
प्रेमानंद जी महाराज का विचार
प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि “धन का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है, यह सबसे महत्वपूर्ण बात है।” अगर आप ब्याज पर पैसा देकर किसी की मदद कर रहे हैं और उससे किसी को नुकसान नहीं हो रहा, तो यह अपने आप में गलत नहीं माना जा सकता।
महाराज जी ने कहा कि अगर ब्याज इतना ज्यादा रखा जाए कि सामने वाला व्यक्ति दबाव में आकर टूट जाए, घर-परिवार बर्बाद हो जाए या आत्महत्या जैसा कदम उठा ले, तो यह निश्चित ही पाप है। लेकिन अगर उचित दर पर, ईमानदारी से और इंसानियत को ध्यान में रखकर यह काम किया जाए तो यह सामान्य आजीविका का साधन माना जा सकता है।
धर्म और नीति के आधार पर ब्याज
धर्मग्रंथों में ब्याज को पूरी तरह निषिद्ध नहीं कहा गया है। बल्कि यह बताया गया है कि शोषण (Exploitation) से बचना चाहिए। यानी ऐसा ब्याज नहीं लेना चाहिए जिससे किसी गरीब या जरूरतमंद का जीवन बिगड़ जाए।
नीति का यही कहना है कि ब्याज का काम न्यायपूर्ण होना चाहिए। यदि आप जरूरतमंद को पैसे देकर उसकी मदद कर रहे हैं और उससे केवल उतना ही ब्याज ले रहे हैं जिससे आपका परिवार चलता रहे, तो इसमें पाप नहीं है।
ब्याज और बैंक का अंतर
अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि जब बैंक ब्याज लेता है तो उसे गलत क्यों नहीं माना जाता? वास्तव में बैंक भी उन्हीं पैसों से चलता है। जब हम पैसे जमा करते हैं तो वह दूसरों को उधार देता है और ब्याज वसूलता है। अंतर सिर्फ इतना है कि बैंक एक संस्था है और हम-आप व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं। लेकिन सिद्धांत एक ही है।
इसलिए अगर बैंक का ब्याज लेना सही है तो उचित सीमा में ब्याज लेना भी पाप नहीं माना जा सकता। फर्क सिर्फ नीयत और व्यवहार का है।
ब्याज से होने वाली कमाई का सदुपयोग
प्रेमानंद जी महाराज ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि ब्याज से जो धन मिलता है उसका सदुपयोग होना चाहिए। यानी उस पैसे से धर्म, दान, सेवा और अपने परिवार की सही जरूरतें पूरी करें। अगर ब्याज से अर्जित पैसा गलत कामों में खर्च होता है तो उसका बोझ बढ़ेगा और यह पाप की श्रेणी में आ सकता है।
ब्याज में संतुलन क्यों जरूरी है?
यदि ब्याज बहुत ज्यादा है तो उधार लेने वाला कभी भी इसे चुकता नहीं कर पाएगा। धीरे-धीरे उसकी हालत खराब हो जाएगी। यही कारण है कि समाज में ब्याज का काम करने वालों को हमेशा संतुलन बनाए रखना चाहिए।
एक साधारण उदाहरण के तौर पर –
ऋण राशि | ब्याज दर (प्रतिमाह) | कुल ब्याज (1 वर्ष) | टिप्पणी |
---|---|---|---|
₹10,000 | 2% | ₹2,400 | सामान्य दर, चुकाना आसान |
₹10,000 | 10% | ₹12,000 | अत्यधिक दर, उधारकर्ता पर बोझ |
तालिका से साफ है कि अगर ब्याज दर सामान्य होगी तो उधार लेने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे पैसा लौटा सकता है। लेकिन अगर दर बहुत ज्यादा होगी तो वह व्यक्ति बर्बाद हो सकता है और यही स्थिति पाप कहलाती है।
निष्कर्ष
संक्षेप में कहा जाए तो ब्याज पर पैसा देना अपने आप में पाप नहीं है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी नीयत कैसी है, आप ब्याज की दर कितनी रखते हैं और उससे किसी जरूरतमंद का कितना भला या नुकसान हो रहा है।
प्रेमानंद जी महाराज के शब्दों में – “धन का शुद्ध उपयोग ही उसे पुण्य बनाता है। यदि धन से किसी की मदद होती है तो वह पाप नहीं बल्कि सेवा है, लेकिन यदि धन से किसी का शोषण होता है तो वही पाप है।”
डिस्क्लेमर: लेख केवल सामान्य जानकारी और आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर आधारित है। किसी भी प्रकार का आर्थिक निर्णय लेने से पहले अपने विवेक और परिस्थिति का ध्यान जरूर रखें।